4- इस्लाम के स्तंभ
इस्लाम के पाँच प्रत्यक्ष मूल स्तंभ हैं, जिनकी पाबंदी करना एक व्यक्ति के मुसलमान होने के लिए ज़रूरी है:
क- पहला स्तंभ: इस बात की गवाही कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के रसूल हैं।
यह प्रथम शब्द है, जिसे इस्लाम में प्रवेश करने वाले के लिए इस्लाम में प्रवेश करते समय कहना ज़रूरी है। वह कहेगा: “मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है तथा मैं इस बात की गवाही देता हूँ कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं।” इन शब्दों को कहने के साथ-साथ इनके अर्थ पर भी विश्वास रखना जरूरी होगा, जैसा कि हम ने पहले बयान किया है।
उसको विश्वास होना चाहिए कि अल्लाह ही एकमात्र सत्य पूज्य है, जिसकी न कोई संतान है और न वह किसी की संतान है, और न कोई उसका समकक्ष है। वही सृष्टिकर्ता है और उसके सिवा सारी चीज़ें उसकी सृष्टि हैं। वही एक मात्र पूज्य एवं इबादत के लायक़ है। उसके अतिरिक्त न कोई पूज्य है और न कोई पालनहार। इसी तरह उसका विश्वास होना चाहिए कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह के बंदे तथा उसके रसूल हैं, जिनपर आकाश से वह्यी आती थी और जो अल्लाह के आदेशों एवं निषेधों को उसकी सृष्टि तक पहुँचाने वाले हैं। उनकी बताई हुई हर बात की पुष्टि करना, उनके हर आदेश का पालन करना और उनकी मना की हुई हर चीज़ से दूर रहना ज़रूरी है।
ख- दूसरा स्तंभ: नमाज़ स्थापित करना।
नमाज़ अल्लाह की बंदगी एवं उसके आगे विनम्रता व्यक्त करने का प्रतीक है। इसमें बंदा अल्लाह के सामने इस तरह खड़ा होता है कि अपने दिल में अल्लाह का भय रखता है, फिर पवित्र क़ुरआन की आयतें पढ़ता है, विभिन्न प्रकार के अज़कार एवं प्रशंसाओं द्वारा अल्लाह की महानता बयान करता है, उसके लिए रुकू एवं सजदा करता है, उससे वार्तालाप करता है, दुआएँ करता है और उसके अनुग्रह का प्रार्थी होता है। इस तरह देखा जाए तो नमाज़ बंदे को उसके रब से, जिसने उसे पैदा किया है, जो उसकी खुली एवं छुपी हर बात को जनता है, जोड़ने का एक साधन है। इससे बंदे को अल्लाह का स्नेह, उसकी निकटता एवं प्रसन्नता प्राप्त होती है और जिसने अल्लाह की बंदगी से अभिमान के कारण इसे छोड़ दिया, वह अल्लाह के क्रोध एवं उसकी लानत का पात्र बन जाता है और इस्लाम के दायरे से बाहर हो जाता है।
दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाज़ें फ़र्ज़ हैं, जिनमें क़याम एवं सूरह फ़ातिहा का पढ़ना हैं। सूरा फ़ातिहा इस प्रकार है:
“प्रारंभ करता हूँ अल्लाह के नाम से, जो बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है।
सारी प्रशंसा अल्लाह ही के लिए है, जो सारे संसार का पालनहार हैl
बड़ा दयालु एवं अति कृपावान है।
प्रतिकार (बदले) के दिन का मालिक है।
हम केवल तेरी ही उपासना करते हैं और केवल तुझ से सहायता माँगते हैं।
हमें सुपथ (सीधा मार्ग) दिखा।
उन लोगों का मार्ग, जिनको तूने पुरस्करित किया, उनका मार्ग नहीं जिन पर तेरा प्रकोप उतरा, और न ही उनका जो कुपथ (गुमराह) हो गए।”
[सूरह अल-फ़ातिहा: 1-7]
इसके बाद क़ुरआन की जितनी आयतें हो सके पढ़ी जाती हैं। नमाज़ में रूकू, सजदा, अल्लाह से प्रार्थना, ‘अल्लाहु अकबर’ के माध्यम से उसकी बड़ाई का बखान, रुकू में ‘सुबहाना रब्बीयलअज़ीम’ के रूप में उसकी पवित्रता का गान और सजदे में ‘सुबहाना रब्बीयलआला’ के रूप में उसकी पाकी का बयान शामिल है।
नमाज़ से पहले इस बात की ज़रूरत है कि नमाज़ का इरादा रखने वाला व्यक्ति मलिनताओं (पेशाब तथा पाखाना) से अपने शरीर, वस्त्र एवं नमाज़ के स्थान को पाक कर ले और पानी से वज़ू कर ले। वज़ू का मतलब यह है कि चेहरे और दोनों हाथों को धो ले, सर का मसह करे और फिर अपने दोनों क़दमों को धो लें।
और यदि (पत्नी से शारीरिक संबंध स्थापित करने के कारण) जुंबी हो, तो उसे स्नाान करना पड़ेगा, यानी पूरे शरीर को धोना पड़ेगा।
ग- तीसरा स्तंभ: ज़कात
ज़कात धन का एक निश्चित प्रतिशत है, जिसका अदा करना अल्लाह ने धनवानों पर फ़र्ज़ किया है और जो समाज के हक़दार ग़रीबों एवं निर्धनों को दिया जाता है, ताकि उनकी ज़रूरत पूरी हो सके। नक़दी में ज़कात मूल धन का ढाई प्रतिशत निकाली जाती है और उसे हक़दारों के बीच बाँट दिया जाता है।
इस्लाम का यह स्तंभ समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच सामाजिक एकजुटता को बढ़ावा देता है, इससे उनके दरमियान आपसी प्रेम एवं सहयोग की भावना परवान चढ़ती है, और निर्धन वर्ग के दिल से धनवान वर्ग के प्रति नफ़रत एवं द्वेषपूर्म भावना का खात्मा होता है। यह आर्थिक गतिविधियों के आगे बढ़ने, धन के सही रूप में गतिमान रहने और समाज के सभी वर्गों तक पहुँचने का एक मूल कारण है।
ज़कात नक़दी, सोना, चाँदी, पशु, फल, अनाज एवं व्यापारिक धन आदि अलग-अलग प्रकार के धन के मूल धन से अलग-अलग परिमाण में निकाली जाती है।
घ- चौथा स्तंभ: रमज़ान का रोज़ा
रोज़ा नाम है फ़ज्र प्रकट होने से सूरज डूबने तक अल्लाह की इबादत की नीयत से खाने, पीने तथा पत्नी से संभोग करने से रुकने का।
रमज़ान का महीना जिसमें रोज़ा रखना अनिवार्य है, चंद्र वर्ष का नवाँ महीना है। इसी महीने में अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर क़ुरआन का अवतरन आरंभ हुआ था।
उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:
“यही रमज़ान का महीना है जिसमें क़ुरआन उतारा गया, जो सब मानव के लिए मार्गदर्शन है तथा जिसमें मार्गदर्शन और सत्य व असत्य के बीच अन्तर करने के खुले प्रमाण हैं। अतः जो व्यक्ति इस महीने में उपस्थित हो, वह उसका रोज़ा रखे।”
[सूरह अल-बक़रा: 185]
रोज़े के कुछ महत्वपूर्ण लाभ यह हैं कि उससे इन्सान सब्र का आदी बनता है, उसकी धर्मपरायणता की क्षमता सुदृढ़ होती है और दिल में ईमान मज़बूत होता है। इसका कारण यह है कि रोज़ा बंदा एवं अल्लाह के बीच एक भेद है। उसमें इस बात की गुंजाइश रहती है कि बंदा एकांत में कुछ खा अथवा पी ले और किसी को कुछ पता भी न चले। लेकिन जब कोई यह जानते हुए भी कि उसकी इस इबादत का वास्तविक ज्ञान अल्लाह के अतिरिक्त किसी को नहीं होता, अल्लाह की इबादत के तौर पर और केवल उसी के आज्ञापालन में खाने एवं पीने से रुका रहे, तो इससे अल्लाह के निकट उसके ईमान एवं धर्मपरायणता में वृद्धि होती है। यही कारण है कि रोज़ेदार को अल्लाह के यहाँ बहुत बड़ा प्रतिफल मिलता है, बल्कि जन्नत में रोज़ेदारों के लिए एक विशेष द्वारा है, जो अर-रय्यान द्वार कहलाता है।
एक मुसलमान साल में किसी भी दिन, ईद अल-फ़ित्र एवं ईद अल-अज़हा के दिन को छोड़, नफ़ल रोज़ा रख सकता है।
ङ- पाँचवाँ स्तंभ: अल्लाह के पवित्र घर का हज करना
जीवनकाल में एक बार हज करना फ़र्ज़ है। यदि अधिक बार किया तो वह नफ़ली हज होगा। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:
“तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का हज अनिवार्य है, जो वहां तक पहुंचने की शक्ति रखता हो।”
[सूरह आल-ए-इमरान: 97]
इसके लिए मुसलमान हज के महीना अर्थात अरबी कैलेंडर के अंतिम महीना में मक्का स्थित धार्मिक प्रतीक की हैसियत रखने वाले स्थलों की यात्रा करते हैं। मक्का में प्रवेश करने से पहले अपने आम वस्त्र को उतार कर एहराम का वस्त्र यानी दो सफेद रंग की चादरें पहन लेते हैं।
फिर काबा का तवाफ़, सफ़ा एवं मरवा पहाड़ों के बीच दौड़ लगाना, अरफ़ा के मैदान में रुकना और मुज़दलिफ़ा में रात गुज़ारना आदि हज के विभिन्न कार्य करते हैं।
हज धरती पर मुसलमानों का सबसे बड़ा जमावड़ा है, उनमें भाईचारा, परस्पर प्रेम एवं एक-दूसरे के शुभचिंतन का साया छाया रहता है। सब लोग एक ही वस्त्र धारण किए हुए होते हैं और एक ही प्रकार की इबादतें कर रहे होते हैं। उनमें से किसी को किसी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, मगर धर्मपरायणता के आधार पर। हज का प्रतिफल बहुत बड़ा है जैसा कि अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है:
“जिसने हज किया तथा हज के दिनों में बुरी बात एवं बुरे कार्यों से बचा रहा, वह उस दिन की तरह होकर लौटेगा, जिस दिन उसकी माँ ने उसे जन्म दिया था।”[4]
[4] सहीह बुख़ारी हदीस संख्या 2/164, किताब अल-हज्ज, अध्याय फ़ज़्ल अल-हज्ज अल-मबरूर।