ख- हराम एवं मनाही कार्य
पहला: शिर्क (किसी भी प्रकार की बंदगी (उपासना) अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए करना
जैसे कोई अल्लाह के अतिरिक्त किसी और को सजदा करता हो, किसी और को पुकारता हो, किसी और से ज़रूरत की चीज़ें माँगता हो, किसी और के नाम पर जानवर ज़बह करता हो या किसी और के लिए किसी भी प्रकार की कोई इबादत करता हो। चाहे जिसे पुकारा जाए वह कोई जीवित हो या मरा हुआ, क़ब्र हो या बुत, पत्थर हो या पेड़, नबी हो या वली या कोई पशु आदि। यह सब शिर्क के रूप हैं, जिसे अल्लाह तौबा किए बिना और इस्लाम में दोबारा प्रवेश किए बिना माफ़ नहीं करता।
महान अल्लाह ने कहा है:
“निःसंदेह अल्लाह उसके साथ साझी बनाए जाने को माफ नहीं करेगा और उसके सिवा जिसे चाहे, क्षमा कर देगा।जिसने अल्लाह का साझी बनाया तो उसने महा पाप गढ़ लिया।”
[सूरह अन-निसा: 48]
मुसलमान केवल सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह की इबादत करता है, उसी को पुकारता है और उसी के आगे सर झुकता है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:
“आप कह दें कि निश्चय मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी तथा मेरा जीवन-मरण संसार के पालनहार अल्लाह के लिए है।
जिसका कोई साझी नहीं तथा मुझे इसी का आदेश दिया गया है और मैं प्रथम मुसलमानों में से हूँ।”
[सूरह अन-अनआम: 162-163]
यह मानना भी शिर्क है कि अल्लाह की पत्नी या उसकी संतान है -अल्लाह इन सब से पाक है- या फिर यह मानना भी शिर्क है कि अल्लाह के अतिरिक्त भी कुछ पूज्य हैं, जो इस ब्रह्मांड को चलाते हैं।
“यदि आसमान एवं ज़मीन में अल्लाह के सिवा कई पूज्य होते, तो निश्चय ही दोनों बर्बाद हो जाते। अतः अर्श (सिंहासन) का स्वामी अल्लाह पवित्र है उन बातों से जिन्हें वे उसके साथ जोड़ते हैं।”
[सूरह अल-अंबिया: 22]
दूसरा: जादू करना, कहानत और ग़ैब की बात जानने का दावा करना
जादू और कहानत कुफ़्र है। यहाँ यह याद रहे कि जादू उसी समय काम करता है जब जादूगर का संबंध शैतान से हो और वह उसकी इबादत करता हो। यही कारण है कि किसी मुसलमान के लिए जादूगरों के पास जाना और उनके परोक्ष की जानने के दावों और आने वाले समय में होने वाली घठनाओं के बारे में उनकी भविष्यवाणियों को सच मानना जायज़ नहीं है।
उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:
“आप कह दें कि अल्लाह के सिवा आकाशों तथा धरती में रहने वाला कोई भी परोक्ष से अवगत नहीं है।”
[सूरह अन-नम्ल: 65]
एक अन्य स्थान में उसने कहा है:
“वह ग़ैब (परोक्ष) का ज्ञानी है। अतः वह अवगत नहीं कराता है अपने परोक्ष पर किसी को।
सिवाय उसके जिसे वह रसूल (संदेशवाहक) की हैसियत से चुन लेता है, फिर वह उसके आगे तथा उसके पीछे रक्षक लगा देता है।”
[सूरह अल-जिन्न: 26-27]
तीसरा :अत्याचार करना
अत्याचार का दायरा बड़ा विस्तृत है और उसके अंदर बहुत-से बुरे कार्य और बुरे गुण शामिल हैं जो व्यक्ति विशेष को प्रभावित करते हैं। इसमें इन्सान का अपने ऊपर अत्याचार करना, अपने आस-पास के लोगों पर अत्याचार करना और अपने समाज पर अत्याचार करना, बल्कि अपने शत्रुओं पर अत्याचार करना भी दाखिल है। महान अल्लाह ने कहा है:
“और किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें इंसाफ़ न करने पर न उकसाए। इंसाफ़ करो, वह परहेज़गारी से बहुत क़रीब है।”
[सूरह अल-माइदा: 8]
अल्लाह ने हमें बताया है कि वह ज़ालिमों से प्रेम नहीं रखता। अल्लाह के रसूल सल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है कि अल्लाह तआला ने कहा है:
“हे मेरे बन्दो ! मैंने अपने ऊपर अत्याचार को वर्जित कर लिया है और उसे तुम्हारे बीच हराम (निषिद्ध) ठहराया है। अत: तुम आपस में एक-दूसरे पर जुल्म न करो।”[24]
और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है:
“अपने भाई की मदद करो, वह ज़ालिम हो या मज़लूम। एक व्यक्ति ने कहा: ऐ अल्लाह के रसूल! जब वह मज़लूम हो तो उसकी मदद करूँगा। परन्तु जब वह ज़ालिम हो तो उसकी मदद भला कैसे करूँ? फ़रमाया: उसे अत्याचार से रोको। यही उसकी मदद है।”[25]
[24] सहीह मुस्लिम, किताब अल-बिर्र व अस-सिलह व अल-आदाब, अध्याय: तहरीम अज़-ज़ुल्म (16/132)
[25] सहीह बुख़ारी, किताब अल-मज़ालिम व अल-ग़सब, अध्याय: अइन अख़ाक ज़ालिमन अव मज़लूमन (3/168)।
चौथा: किसी की नाहक़ हत्या करना
यह इस्लाम धर्म की नज़र में एक बहुत बड़ा अपराध है, जिसपर अल्लाह ने बड़ी सख़्त यातना देने की बात कही है और उसपर दुनिया का सबसे कठिन दंड निर्धारित किया है। यानी हत्यारे को यदि मक़तूल (जिसका क़त्ल हुआ है) के उत्तराधिकारी क्षमा न करें तो उसका वध किया जाएगा। महान अल्लाह ने कहा है:
“इसी कारण हमने इसराईल की संतानों के लिए यह आदेश लिख दिया कि जो भी किसी इंसान की हत्या, बिना किसी जान के बदले में या धरती पर फसाद मचाने की नीयत से करेगा तो माना जाएगा कि उसने पूरी मानवता की हत्या कर दी और जिसने एक भी मनुष्य को बचाया तो माना जाएगा कि उसने पूरी मानवता को बचा लिया।”
[सूरह अल-माइदा: 32]
एक अन्य स्थान में उसने कहा है:
“और जो किसी ईमान वाले की हत्या जान-बूझ कर कर दे, उसका बदला नरक है, जिसमें वह सदा रहेगा और उसपर अल्लाह का प्रकोप तथा धिक्कार है और उसने उसके लिए घोर यातना तैयार कर रखी है।”
[सूरह अन-निसा: 93]
पाँचवाँ: किसी का धन अवैध तरीक़े से ले लेना
चाहे चोरी करे, या ज़बरदस्ती छीन ले, या रिश्वत के तौर पर ले या धोखे से ले ले या किसी और तरीक़ा से। अल्लाह तआला ने कहा है:
“चोर, पुरुष हो या स्त्री, दोनों के हाथ काट दो, उनके करतूत के बदले, जो अल्लाह की ओर से शिक्षाप्रद दण्ड है और अल्लाह प्रभावशाली और ज्ञाणी है।”
[सूरह अल-माइदा: 38]
एक अन्य स्थान मेंअल्लाह ने कहा है:
“तथा आपस में एक-दूसरे का धन अवैध रूप से न खाओ।”
[सूरह अल-बक़रा: 188]
एक अन्य स्थान में पवित्र अल्लाह का कथन है:
“जो लोग अनाथों का धन अवैध रूप से खाते हैं, वे अपने पेट में आग भरते हैं और शीघ्र ही नरक की अग्नि में प्रवेश करेंगे।”
[सूरह अन-निसा: 10]
इस्लाम अवैध तरीक़े से किसी का धन लेने से बड़ी सख़्ती से रोकता है और उसके लिए ऐसी सख़्त सज़ा निर्धारित करता है जो उसके एवं उस जैसे सामाजिक सुरक्षा को भंग करने वाले लोगों के लिए सबक बन जाए।
छठा: धोखा, विश्वासघात तथा ख़यानत
क्रय-विक्रय, समझौता तथा संधियों इत्यादि में धोखा एवं ख़यानत मना है। यह अवगुण हैं और इस्लाम ने इनसे सावधान किया है।
महान अल्लाह ने कहा है:
“विनाश है डंडी मारने वालों के लिए।
जो लोगों से नाप कर लें, तो पूरा लेते हैं।
और जब उन्हें नाप या तोल कर देते हैं तो कम देते हैं।
क्या वे नहीं सोचते हैं कि फिर जीवित किए जाएँगे?
एक भीषण दिन के लिए।
जिस दिन सभी विश्व के पालनहार के सामने खड़े होंगे।”
[सूरह अल-मुतफ़्फ़िफ़ीन: 1-5]
और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है:
“जिसने हमें धोखा दिया वह हम में से नहीं है।”[26]
एक और स्थान में कहा है:
“निःसंदेह अल्लाह विश्वासघाती तथा पापी से प्रेम नहीं करता।”
[सूरह अन-निसा: 107]
[26] सहीह मुस्लिम, किताब अल-ईमान, अध्याय: क़ौल अन-नबी “मन ग़श्शना फ़ लैसा मिन्ना” (2/109)।
सातवाँ: लोगों की इज़्ज़त पर हमला करना
जैसे बुरा कहना, गाली देना, गीबत करना, चुगली करना, द्वेष रखना, बुरा गुमान रखना, बुराई की तलाश में रहना और मज़ाक उड़ाना आदि। इस्लाम एक स्वच्छ एवं पवित्र समाज़ गठित करना चाहता है, जिसमें प्रेम हो, भाई चारा हो, दोस्ती हो और परस्पर सहयोग हो। यही कारण है कि वह उन सामाजिक रोगों को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहता है जो समाज को तोड़ने और उसमें द्वेष, ईर्ष्या और अहंकार जैसी चीज़ों का बीज बोने का काम करते हैं।
महान अल्लाह ने कहा है:
“हे लोगो जो ईमान लाए हो! एक समूह दूसरे समूह का मज़ाक न उड़ाए। हो सकता है मज़ाक उड़ाया जाने वाला समूह मज़ाक उड़ाने वाले से अच्छा हो, और न नारियाँ अन्य नारियों का मज़ाक उड़ाएं, हो सकता है कि वह उनसे अच्छी हों, तथा तुम अपने मुस्लिम भाइयों को लांछन न करो, और न किसी को बुरी उपाधि दो। ईमान लाने के बाद मुसलमान के लिए अपशब्द कहना बुरी बात है। जो ऐसी बद ज़ुबानी से क्षमा न माँगें तो वही लोग अत्याचारी हैं।
हे लोगो जो ईमान लाए हो! अधिकांश गुमानों से बचो। वास्तव में, कुछ गुमान पाप हैं, और किसी की टोह मेंं न लगे रहो और न एक-दूसरे की ग़ीबत करो। क्या तुम में से कोई अपने मरे भाई का मांश खाना पसंद करोगे? यक़ीनन तुम्हें इससे घृणा होगी तथा अल्लाह से डरते रहो, वास्तव में, अल्लाह अति दयावान्, क्षमावान् है।”
[सूरह अल-हुजुरात: 11-12]
इसी तरह इस्लाम समाज में रहने वाले लोगों के बीच नस्लीय एवं वर्गीय भेदभाव के विरुद्ध पूरी शक्ति से लड़ता है। उसकी नज़र में सारे लोग बराबर हैं। किसी अरब को गैरअरब पर और किसी गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। यदि है, तो केवल दीनदारी और धर्मपरायणता के आधार पर। इसलिए सभी लोगों को समान रूप से अच्छे कर्म के मैदान में एक-दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयास करना चाहिए।
“हे मनुष्यों! हमने तुम्हें पैदा किया है एक नर तथा एक नारी से तथा बना दी है तुम्हारी जातियाँ तथा प्रजातियाँ, ताकि एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में, तुम में अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है जो तुम में अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो। वास्तव में अल्लाह सब जानने वाला है, सबसे सूचित है।”
[सूरह अल-हुजुरात: 13]
आठवाँ: जुवा खेलना, मदिरा पान करना और अन्य नशीली पदार्थों का सेवन करना
महान अल्लाह ने कहा है:
“हे ईमान वालो! निःसंदेह मदिरा, जुआ, वह पत्थर जिन पर बुतों के नाम पर जानवर काटे जाते हैं और पाँसे शैतानी काम हैं। अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो जाओ।
शैतान तो यही चाहता है कि शराब (मदिरा) तथा जूए द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष पैदा करे, और तुम्हें अल्लाह की याद तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुक जाओगे?”
[सूरह अल-माइदा: 90-91]
नवाँ: मरे हुए जानवर का मांस खाना, रक्त पीना एवं सुअर का मांस खाना
इसी तरह वह सारी गंदी चीज़ें जो इन्सान के लिए हानिकारक हैं और वह सारे जानवर जिन्हें अल्लाह के अतिरिक्त किसी और की निकटता प्राप्त करने के लिए ज़बह किया जाए, उन सब का खाना हराम है।
“हे ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो।
(अल्लाह) ने तुम पर मुर्दार तथा (बहता) रक्त और सूअर का माँस तथा जिस को अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर काटा गया हो, उन्हें हराम (निषेध) कर दिया है। फिर भी जो विवश हो जाए, जबकि वह नियम न तोड़ रहा हो और आवश्यकता की सीमा का उल्लंघन न कर रहा हो, तो उस पर कोई दोष नहीं। अल्लाह अति क्षमाशील, दयावान् है।”
[सूरह अल-बक़रा: 172-173]
दसवाँ: व्यभिचार और लूत के लोगों के काम (समलैंगिकता)
व्यभिचार एक जघन्य कार्य है, जो नैतिकता एवं समाज को भ्रष्ट कर देता है और वंशों में मिश्रण, पारिवारिक ताने-बाने में टूट-फूट और उचित पालन-पोषण की कमी का कारण बनता है। व्यभिचार के नतीजे में पैदा होने वाले बच्चे को इस अपराध कुप्रभाव और समाज की नफ़रत का सामना करना पड़ता है। अल्लाह ने कहा है:
“सावधान ! ज़िना के क़रीब भी न जाना, क्योंकि वह बड़ी बेहयाई (निर्लज्जता) और बहुत ही बुरी राह (मार्ग) है।”
[सूरह अल-इसरा: 32]
साथ ही यह समाज के ढाँचे को खोखला करने वाले यौन रोगों के फैलाने का भी कारण बनता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है:
“जब किसी जाति में बेहयाई इस हद तक फैल गई कि लोग खुल्लम खुल्लाह बेहयाई के काम करने लगें तो उनके अंदर ताऊन एवं ऐसी बीमारियाँ फैल जाती हैं , जो पहले मौजूद नहीं थीं।” [27]
[27] सुनन इब्न-ए-माजा, किताब अल-फ़ितन, अध्याय: अल-उक़ूबात (2/1333)। अलबानी ने इसे सहीह सुनन इब्न-ए-माजा (2/370) में हसन कहा है।
यही कारण है कि इस्लाम ने व्यभिचार के सभी चोर दरवाज़ों को बंद करने का आदेश दिया है। उसने मुसलमानों को नज़र नीची रखने का आदेश दिया है। क्योंकि अवैध दृष्टि ही से व्यभिचार के सारे द्वार खुलते हैं। इसी तरह स्त्रियों को पर्दे में और पाकबाज़ रहने का आदेश दिया है, ताकि समाज को बेहयाइयों से बचाया जा सके। साथ ही शादी करने का आदेश और उसकी प्रेरणा दी है, बल्कि उसका प्रतिफल एवं सवाब प्रदान करने का वादा किया है। बल्कि इससे भी दो क़दम आगे, पति-पत्नी के बीच होने वाले शारीरिक संबंधों का प्रतिफल एवं सवाब प्रदान करने का वादा किया है। ताकि ऐसे स्वच्छ एवं पवित्र परिवारों का गठन हो सके जो आज के बच्चों और कल के लोगों का सफल पालन-पोषण कर सकें ।
ग्यारहवाँ: सूद खाना
सूदी लेनदेन एक तरह से अर्थ व्यवस्था को नष्ट करना और ज़रूरतमंद व्यक्ति की ज़रूरत का लाभ उठाना है। ज़रूरतमंद व्यक्ति व्यावसायिक भी हो सकता है, जिसे व्यवसाय के लिए धन की ज़रूरत होती है और निर्धन भी हो सकता है, जिसे अपनी ज़रूरत पूरी करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। सूद नाम है निर्धारित समय तक धन क़र्ज़ देने और वापसी के समय निर्धारित मात्रा में अधिक लेने का। इस तरह सूद लेने वाला ज़रूरतमंद व्यक्ति की ज़रूरत का ग़लत फायदा उठाता है और उसके सर पर मूल धन से अधिक क़र्ज़ का बोझ डालता है।
सूद लेने वाला व्यावसायिक, निर्माता या किसान आदि लोगों की जो अर्थ व्यवस्था को गति देते हैं, ज़रूरत का ग़लत फ़ायदा उठाता है।
वह इन लोगों की नक़दी की तीव्र आवश्यकता का फ़ायदा उठाता है और उन्हें क़र्ज़ देकर लाभ से अधिक उगाही करता है तथा खुद मंदी एवं नुक़सान का जोख़िम भी नहीं उठाता।
ऐसे में व्यापारी को जब घाटा लगता है, तो उसके सर पर क़र्ज़ का पहाड़ चढ़ जाता है और यह सूदखोर उसे धर दबोचता है। हालाँकि यदि दोनों लाभ एवं घाटा में साझी होते और इस्लाम के आदेश अनुसार एक की मेहनत लगती और दूसरे का धन, तो अर्थ व्यवस्था की गाड़ी निरंतर रूप से चलती और इससे सबको लाभ होता।
महान अल्लाह ने कहा है:
“हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो और जो ब्याज शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमान रखने वाले हो तो।
और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो अल्लाह तथा उसके रसूल से युद्ध के लिए तैयार हो जाओ और यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो तो तुम्हारे लिए तुम्हारा मूल धन है। न तुम अत्याचार करो, न तुमपर अत्याचार किया जाए।
और यदि तुम्हारा ऋणि असुविधा में हो, तो उसे सुविधा तक अवसर दो और अगर क्षमा कर दो(अर्थात दान कर दो), तो यह तुम्हारे लिए अधिक अच्छा है, यदि तुम समझो तो।”
[सूरह अल- बक़रा: 278-280]
बारहवाँ: लालच एवं कंजूसी
यह स्वार्थ और आत्म-प्रेम का प्रमाण है। कंजूस का ध्यान केवल धन एकत्र करने पर रहता है। वह अपने धन की ज़कात निकालकर ग़रीबों एवं निर्धनों को नहीं देता है, समाज के प्रति उदासीनता दिखाता है और भाई चारा एवं सहयोग के सिद्धांत का अनुसरण नहीं करता, जिसका आदेश अल्लाह एवं उसके रसूल ने दिया है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:
“वे लोग कदापि ये न समझें, जो उसमें कृपण (कंजूसी) करते हैं, जो अल्लाह ने उन्हें अपनी दया से प्रदान किया है कि वह उनके लिए अच्छा है, बल्कि वह उनके लिए बुरा है, जिसमें उन्होंने कृपण किया है। प्रलय के दिन उसे उनके गले का हार बना दिया जाएगा और आकाशों तथा धरती की मीरास (उत्तराधिकार) अल्लाह के लिए है तथा अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उससे सूचित है।”
[सूरह आल-ए-इमरान: 180]
तेरहवाँ : झूठ बोलना तथा झूठी गवाही देना
हम इससे पहले अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन नक़ल कर चुके हैं:
“झूठ पाप का और पाप जहन्नम का मार्ग दिखाता है। एक इंसान, झूठ बोलता रहता है और झूठ को जीता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के पास ‘झूठा’ लिख दिया जाता है।”
झूठ का एक बदतरीन उदाहरण झूठी गवाही है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने पूरी शक्ति से इससे नफ़रत दिलाई है और इसके परिणामों से सावधान किया है। जब इसका ज़िक्र आया तो आपकी आवाज़ ऊँची हो गई तथा अपने साथियों से कहा:
“क्या मैं तुम्हें सबसे बड़े गुनाहों के बारे में न बताऊँ?” (आपने यह बात तीन बार दोहराई) हमने कहाः अवश्य, ऐ अल्लाह के रसूल! तो आप ने फ़रमायाः “अल्लाह का साझी बनाना और माता-पिता की बात न मानना।” यह कहते समय आप टेक लगाए हुए थे, लेकिन सीधे बैठ गए और फ़रमायाः “सुन लो, तथा झूठी बात कहना और झूठी गवाही देना।”[28]
आप इस वाक्य को निरंतर दोहराते रहे, ताकि लोग इन दो कामों में पड़ने से सावधान रहे।
[28] सहीह बुख़ारी, किताब अश-शहादात, अध्याय: मा क़ीला फ़ी शहादह अज़-ज़ूर (3/225)।
चौदहवाँ: अहंकार, अभिमान एवं आत्ममुग्धता
इस्लाम की दृष्टि में अहंकार एवं अभिमान बुरी आदतें हैं। स्वयं अल्लाह ने बताया है कि वह अभिमानियों को पसंद नहीं करता है तथा आख़िरत में उनका जो परिणाम होगा, उसके बारे में बताते हुए कहा है:
“तो क्या नरक में नहीं है अभिमानियों का स्थान?”
[सूरह अज़-ज़ुमर: 60]
इस तरह अभिमानी एवं अहंकारी व्यक्ति अल्लाह की नज़र में ही अप्रिय है और उसकी सृष्टि की नज़र में भी अप्रिय है।