इस्लाम धर्म

क़ुरआन एवं हदीस के आलोक में

क- वो कार्य जिनका आदेश दिया गया है

यहाँ इस्लाम के कुछ नैतिक मूल्यों एवं शिष्टाचारों का संक्षिप्त उल्लेख किया जाएगा, जिनसे मुस्लिम समाज को सुशोभित होना चाहिए। हमारा प्रयास होगा इन्हें इस्लाम के मूल स्रोतों यानी पवित्र क़ुरआन और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की हदीसों की रोशनी में बयान किया जाए।

पहला: सच बोलना:

इस्लाम अपने मानने वालों पर सच बोलने को अनिवार्य करता है और उसे उसके लिए विशेष पहचान बनाता है जिस से किसी भी परिस्थिति में अलग होना जायज़ नहीं। इसी तरह उन्हें झूठ से सख़्त सावधान करता है और खुले शब्दों में उससे नफ़रत दिलाता है। उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:

“हे ईमान वालो! अल्लाह से डरो तथा सच बोलने वालों में से हो जाओ।”

[सूरह अत-तौबा: 119]

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है:

“सच्चाई को मज़बूती से थाम लो, क्योंकि सच्चाई नेकी (सत्कर्म) का मार्ग दिखाती है, और नेकी जन्नत की ओर ले जाती है, और व्यक्ति सदा सच बोलता है तथा सच की खोज में लगा रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के निकट सत्यवादी लिख दिया जाता है, और झूठ बोलने से बचो, क्योंकि झूठ बुराई की ओर ले जाता है, और बुराई जहन्नम की ओर ले जाती है, और एक व्यक्ति सदा झूठ बोलता रहता है तथा झूठ की खोज में लगा रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के यहां झूठा लिख दिया जाता है।”[6]

[6] सहीह बुख़ारी हदीस संख्या: 6094 एवं सहीह मुस्लिम हदीस संख्या: 2607

झूठ बोलना मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़[7] की विशेषता है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है:

“मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैं, जब बोलता है तो झूठ ही बोलता है, वायदा करता है तो उसे पूरा नहीं करता और जब उसके पास अमानत रखी जाती है तो उसमें ख़यानत करता है।”[8]

[7] मुनाफ़िक़ वह व्यक्ति है, जो खुद को मुसलमान दिखाता हो, लेकिन उसके हृदय में इस्लाम धर्म के प्रति विश्वास न हो।

[8] सहीह बुख़ारी, किताब अल-ईमान, अध्याय अलामत अल-मुनाफ़िक़ (1/15)।

यही कारण है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने सच बोलने को अपने व्यक्तित्व का इस तरह से अभिन्न अंग बना लिया कि उनमें से एक ने कह दिया: हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के ज़माने में झूठ को जानते ही नहीं थे।

दूसरा: अमानत अदा करना, वचन पूरा करना और लोगों के बीच न्याय करना:

महान अल्लाह ने कहा है:

“अल्लाह तुम्हें आदेश देता है कि धरोहर उनके मालिकों के पास पहुंचा दो, और जब लोगों के बीच फैसला करो, तो न्याय के साथ फैसला करो।”

[सूरह अन-निसा: 58]

एक अन्य स्थान में उसने कहा है:

“और वचन पूरा करो, निश्चय ही वचन के विषय में प्रश्न किया जाएगा।

और नाप पूरा करो, और सही तराज़ू से तोलो, यह अधिक अच्छा है और इसका परिणाम उत्तम है।”

[सूरह अल-इसरा: 34-35]

जबकि मोमिनों की प्रशंसा करते हुए कहा है:

“जो अल्लाह से किया हुआ वचन पूरा करते हैं, और वचन भंग नहीं करते।”

[सूरह अर-राद: 20]

तीसरा: विनम्रता और अभिमान न करना

अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम लोगों में सबसे विनम्र थे। अपने साथियों के साथ घुल-मिलकर बैठ जाते और इस बात को नापसंद करते थे कि जब आप आएँ तो कोई आपके सम्मान में खड़ा हो। कभी-कभी ऐसा होता कि कोई ज़रुरत मंद व्यक्ति आपका हाथ पकड़ कर लेकर चला जाता और उस समय तक नहीं छोड़ता जब तक उसकी ज़रूरत पूरी न हो जाती। आपने मुसलमानों को भी विनम्र रहने का आदेश दिया है। कहा है: “अल्लाह ने मेरी ओर यह वह्यी की है कि तुम लोग विनम्र रहो, यहाँ तक कि कोई किसी पर अभिमान न करें, और कोई किसी पर अत्याचार न करे।”

[9] सहीह मुस्लिम (17/200), किताब अल-जन्नह, अध्याय : अस-सिफ़ात अल-लती यूरफ़ु बिहा अह्ल अल-जन्नह।

चौथा: दानशीलता तथा भलाई के कामों में खर्च करना

अल्लाह तआला ने कहा है:

“तथा तुम जो भी दान देते हो अपने लिए देते हो, तथा तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए देते हो, तथा तुम जो भी दान दोगे तुम्हें उसका भरपूर बदला चुका दिया जाएगा, और तुम पर अत्याचार नहीं किया जाएगा।”

[सूरह अल-बक़रा: 272]

अल्लाह ने ईमान वालों की प्रशंसा करते हुए कहा है:

“और अपने लिए भोजन की आवश्यकता होते हुए उसे निर्धन, अनाथ और बंदी को खिला देते हैं।”

[सूरह अल-इनसान: 8]

दानशीलता अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम और आपके पद्चिह्नों पर चलने वाले मोमिनों का गुण है। आपके पास जो भी धन होता, उसे आप भलाई की राह में खर्च कर देते थे। आपके एक साथी जाबिर रज़ियल्लाहु अनहु ने कहा है:

“कभी ऐसा नहीं हुआ कि अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) से कुछ माँगा गया हो और आपने न कहा हो।”

आपने अतिथि सत्कार की प्रेरणा देते हुए कहा है:

“जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने अतिथि का आदर-सत्कार करे ,और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने रिश्तेदारों के साथ अच्छा व्यवहार करे, और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अच्छी बात करे या खामोश रहे।”[10]

[10] सहीह बुख़ारी हदीस संख्या: 6138 और सहीह मुस्लिम हदीस संख्या: 47

पाँचवाँ: धैर्य एवं सहनशीलता

उच्च एवं महान अल्लाह ने कहा है:

“तथा जो मुसीबत आए उसे सहन करो, वास्तव में, यह बड़ा साहस का काम है।”

[सूरह लुक़मान: 17]

एक अन्य स्थान में उसने कहा है:

“हे ईमान वालो! धैर्य तथा नमाज़ का सहारा लो। निश्चय अल्लाह धैर्यवानों के साथ है।”

[सूरह अल-बक़रा: 153]

एक और स्थान में कहा है:

“और हम, जो धैर्य धारण करते हैं, उन्हें अवश्य उनका पारिश्रमिक (बदला) उनके उत्तम कर्मों के अनुसार प्रदान करेंगे। “

[सूरह अन-नह्ल: 96]

अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम धैर्य, सहनशीलता एवं बुराई का बदला बुराई से न देने के मामले में बहुत आगे थे। जब आपने इस्लाम के प्रचार का कार्य आरंभ किया तो आपकी जाति ने आपको कष्ट दिया और मारकर ज़ख़्मी तक कर दिया, लेकिन इसके बावजूद आप ने चेहरे से रक्त पोंछते हुए कहा:

“ऐ अल्लाह, मेरे समुदाय के लोगों को क्षमा कर दे, क्योंकि वे नहीं जानते हैं।”[11]

[11] सहीह बुख़ारी, किताब अल-मुरतद्दीन, अध्याय: 5 (9/20)।

छठा: हया

मुसलमान पाकबाज़ और लज्जावान होता है। हया ईमान की एक शाखा भी है। हया मुसलमान को उच्च नैतिकता की ओर ले जाती है और बात एवं काम में उन्हें बेहयाई एवं बेशर्मी से रोकती है। अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है:

“हया केवल भलाई ही लाती है।”[12]

[12] सहीह बुख़ारी, किताब अल-अदब, अध्याय अल-हया (8/35)।

सातवाँ: माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार

माता-पिता की बात मानना, उनके साथ भला करना, विनम्र व्यवहार करना और उनके लिए पलकें बिछाना इस्लाम धर्म के मूल अनिवार्य कार्यों में से है। इसकी अनिवार्यता वैसे-वैसे बढ़ती जाती है जैसे-जैसे माता-पिता बूढ़े होते जाते हैं और बच्चों पर निर्भरता बढ़ती जाती है। अल्लाह ने अपनी किताब में उनकी आज्ञा के पालन का आदेश देते हुए उनके अधिकार के महत्व को दर्शाते हुए कहा है:

“(हे मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत (वंदना) न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों, या दोनों में से एक वृद्धावस्था को पहुँच जाए, तो उन्हें उफ़ तक न कहो, और न झिड़को और उनसे सादर बात बोलो।

और उनके लिए विनम्रता का बाज़ू दया से झुका दो और प्रार्थना करो: हे मेरे पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन दोनों ने बाल्यावस्था में, मेरा लालन-पालन किया है।”

[सूरह अल-इसरा: 23-24]

एक अन्य स्थान में उसने कहा है:

“और हमने आदेश दिया है मनुष्यों को उसके माता-पिता के संबन्ध में, उसे उसकी माता ने दुःख पर दुःख झेलकर अपने गर्भ में रखा और दो वर्ष में उसका दूध छुड़ाया कि तुम कृतज्ञ रहो मेरे, और अपनी माता-पिता के, और मेरी ही ओर (तुम्हें) फिर आना है।”

[सूरह लुक़मान: 14]

एक व्यक्ति ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा कि मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है? तो आपने उत्तर दिया:

“तेरी माँ। उसने पूछा कि फिर कौन? आपने उत्तर दिया: तेरी माँ। उसने पूछा कि फिर कौन? तो आपने उत्तर दिया: तेरी माँ। उसने पूछा फिर कौन? तो आपने कहा: तेरा बाप।”[13]

[13] सहीह बुख़ारी, किताब अल-अदब, अध्याय मन अहक़्क़ अन-नास बि-हुस्न अस-सुहबह (2/8)।

यही कारण है कि इस्लाम ने मुसलमानों पर अपने माता-पिता के सभी आदेशों का पालन करना अनिवार्य किया है। हाँ, यदि वे किसी गुनाह का आदेश दें, उनकी बात मानी नहीं जाएगी। क्योंकि जहाँ सृष्टिकर्ता की अवज्ञा हो रही हो, वहाँ किसी सृष्टि की आज्ञा का पालन नहीं किया जाएगा। अल्लाह तआला ने कहा है:

“और यदि वे दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम उसे मेरा साझी बनाओ, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं, तो न मानो उन दोनों की बात और उनके साथ रहो संसार में सुचारु रूप से।”

[सूरह लुक़मान: 15]

इसी तरह उनका सम्मान करना, उनके साथ विनम्र व्यवहार करना, अपने कथन एवं कार्य द्वारा उनकी इज़्ज़त करना और अच्छे व्यवहार के अन्य सभी तरीकों, जैसे उनके खाने एवं कपड़े का प्रबंध करना, बीमार होने पर इलाज कराना, उनका कष्ट दूर करना, उनके लिए दुआ एवं क्षमायाचना करना, उनके दिए हुए वचन को पूरा करना और उनके मित्रों का सम्मान करना आदि को अपनाना भी अनिवार्य है।

आठवाँ : दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार

नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया:

“सबसे संपूर्ण ईमान वाला मोमिन वह है जो उनमें सबसे अच्छे व्यवहार का मालिक है।”[14]

[14] सुनन अबू दाऊद, किताब अस-सुन्नह, अध्याय अद-दलील अला ज़ियादति अल-ईमान व नुक़सानिहि (5/6), सुनन तिरमिज़ी, किताब अर-रज़ाअ, अध्याय मा जा-अ फ़ी ह़क़्क़ अल-मरअह अला ज़ौजिहा (3/457)। तिरमिज़ी ने इसे हसन सहीह कहा है और अलबानी ने इसके बारे में क्या कुछ कहा है, इसके लिए देखिए : सहीह अबू दाऊद (3/886)।

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक अन्य हदीस में कहा है:

“मेरे निकट तुम में सबसे प्रिय और क़यामत के दिन मुझसे निकटतम स्थान प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति है, जिसका व्यवहार सबसे अच्छा हो।”[15]

[15] सहीह बुख़ारी, किताब अल-मनाक़िब, अध्याय सिफ़त अन-नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम (4/230)। उसके शब्द हैं: “إن من خياركم أحسنكم أخلاقاً”। अर्थात तुम में सबसे अच्छा आदमी वह है जिसका व्यवहार सबसे अच्छा है।

स्वयं अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के आचरण का उल्लेख इन शब्दों में किया है:

“तथा निश्चय ही आप उच्च आचरण के शिखर पर हैं।”

[सूरह अल-क़लम: 4]

और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है:

“मुझे उच्च नैतिकता को संपूर्ण रूप देने के लिए भेजा गया है।”[16]

अतः एक मुसलमान को अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए, अपने बाल-बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए, उनकी अच्छी तरबियत करनी चाहिए, इस्लाम की शिक्षा देनी चाहिए, उन्हें दुनिया एवं आख़िरत की हर हानि से बचाना चाहिए और आत्म विश्वास तथा कमाने की क्षमता पैदा होने की आयु तक उनपर अपना धन खर्च करना चाहिए।

इसी तरह उसे अपने जीवन साथी, भाइयों, बहनों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों और सभी लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। वह अपने भाइयों के लिए वही पसंद करे, जो अपने लिए करता है। बड़ों का सम्मान करे और छोटों पर दया करे। कोई बीमार हो, तो उसका हाल जानने जाए और उसके प्रति संवेदना व्यक्त करे। इस तरह इस आयत पर अमल हो जाएगा :

“तथा माता-पिता, समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, समीप और दूर के पड़ोसी, यात्रा के साथी, के साथ उपकार करो।”

[सूरह अन-निसा: 36]

और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है:

“जो अल्लाह एवं आख़िरत के दिन पर विश्वास रखता हो, वह अपने पड़ोसी को कष्ट न दे।”[17]

[16] मुसनद इमाम अहमद (17/80)। अहमद शाकिर ने इसकी सनद को सहीह कहा है। इसी तरह बुख़ारी ने इसे अल-अदब अल-मुफ़रद, बैहक़ी ने शुअब अल-ईमान और हाकिम ने अल-मुसतदरक में नक़ल किया है।

[17] सहीह बुख़ारी, किताब अल-अदब, अध्याय मन काना यूमिनु बि-अल्लाह व अल-यौम अल-आख़िर फ़-ला यूज़ि जारहु (8/13)

नवाँ: पीड़ित की सहायता, सत्य की स्थापना और न्याय के प्रचार-प्रसार के लिए अल्लाह के मार्ग में युद्ध करना

महान अल्लाह ने कहा है:

“तथा अल्लाह की राह में, उनसे युद्ध करो जो तुमसे युद्ध करते हों और अत्याचार न करो, अल्लाह अत्याचारियों को पसंद नहीं करता।”

[सूरह अल-बक़रा: 190]

इसी प्रकार अल्लाह तआला फ़रमाता है:

“और तुम्हें क्या हो गया है कि अल्लाह की राह में युद्ध नहीं करते, जबकि कितने ही निर्बल पुरुष, स्त्रियाँ और बच्चे हैं, जो गुहार लगा रहे हैं कि हे हमारे पालनहार! हमें इस गांव से निकाल ले, जिसके निवासी अत्याचारी हैं, और हमारे लिए अपनी ओर से कोई रक्षक बना दे और हमारे लिए अपनी ओर से कोई सहायक बना दे।”

[सूरह अन-निसा: 75]

इस्लामी जिहाद का उद्देश्य सत्य की स्थापना, लोगों के बीच न्याय को फैलाना और उन लोगों से युद्ध करना है, जो लोगों पर अत्याचार करते, उनको सताते और अल्लाह की इबादत तथा इस्लाम ग्रहण करने से रोकते हैं। इसके अदंर कदापि लोगों को शक्ति के बल पर इस्लाम धर्म ग्रहण करने पर मजबूर करने जैसी कोई बात नहीं है। अल्लाह तआला ने कहा है:

“धर्म में कोई ज़ोर ज़बरदस्ती नहीं।”

[सूरह अल-बक़रा: 256]

युद्ध के दौरान किसी मुसलमान के लिए महिला, छोटे बच्चे एवं वृद्ध व्यक्ति का वध करना जायज़ नहीं है। वह केवल युद्ध के मैदान में आए हुए अत्याचारियों से युद्ध करेगा।

जो व्यक्ति अल्लाह के मार्ग में मारा गया वह शहीद है। उसके लिए अल्लाह के निकट बड़ा सम्मान, प्रतिफल एवं पुण्य है। महान अल्लाह ने कहा है:

“जो अल्लाह की राह में मार दिए गए, तुम उन्हें मरा हुआ न समझो, बल्कि वे जीवित हैं, अपने पालनहार के पास जीविका दिए जा रहे हैं।

तथा उस से प्रसन्न हैं जो अल्लाह ने उन्हें अपनी दया से प्रदान किया है, और उनके लिए प्रसन्न (हर्षित) हो रहे हैं जो अभी उनके बाद उनसे आकर नहीं मिले हैं, उन्हें कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।”

[सूरह आल-ए-इमरान: 169-170]

दसवाँ : दुआ, ज़िक्र एवं क़ुरआन की तिलावत

मोमिन का ईमान जैसे-जैसे मज़बूत होता जाएगा, वैसे-वैसे अल्लाह से उसका संबंध, उससे दुआ करने और उससे दुनयी की सारी ज़रूरत की चीज़ें तथा आखिरत में गुनाहों की माफ़ी और श्रेणी में ऊँचाई माँगने की भावना मज़बूत होती जाएगी। दरअसल अल्लाह बड़ा उदार एवं दानशील है और इस बात को पसंद करता है कि लोग उससे माँगें। उसने कहा है:

“(हे नबी!) जब मेरे बंदे मेरे विषय में आपसे प्रश्न करें, तो उन्हें बता दें कि निश्चय ही मैं समीप हूँ। मैं प्रार्थी की प्रार्थना का उत्तर देता हूँ।”

[सूरह अल-बक़रा: 186]

अल्लाह बंदे की दुआ ग्रहण करता है, यदि वह उसके हक़ में बेहतर हो, साथ ही वह उसे इस दुआ का प्रतिफल भी प्रदान करता है।

इसी तरह मोमिन की विशेषताओं में से है कि वह बार-बार तथा अधिक से अधिक अल्लाह को याद करे और ‘सुबहानल्लाह’, ‘अल-हम्दुलिल्लाह’, ‘ला इलाहा इल्लाह’ और ‘अल्लाहु अकबर’ आदि अज़कार द्वारा अल्लाह का ज़िक्र करे। अल्लाह ने इसके बदले बड़ा प्रतिफल निर्धारित कर रखा है। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा है:

“विशिष्टता वाले लोग आगे बढ़ गए। सहाबा ने पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल, ये विशिष्टता वाले लोग कौन हैं? तो आपने उत्तर दिया : अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले पुरुष एवं अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाली स्त्रियाँ।” [18]

एक अन्य स्थान में उसने कहा है:

“हे ईमान वालो! याद करते रहो अल्लाह को, अत्यधिक।

तथा पवित्रता बयान करते रहो उसकी प्रातः तथा संध्या।” [सूरा अल-अहज़ाब, आयत संख्या : 41-42] एक और जगह पर उसने कहा है : “अतः, मुझे याद करो, मैं तुम्हें याद करूँगा और मेरे आभारी रहो और मेरे कृतघ्न न बनो।”

[सूरह अल-बक़रा: 152]

ज़िक्र के अंदर अल्लाह की किताब यानी पवित्र क़ुरआन की तिलावत भी आती है। बंदा जितना अधिक क़ुरआन की तिलावत करता जाएगा और उसपर चिंतन करता जाएगा, अल्लाह के निकट उसका सम्मान उतना ही बढ़ता जाएगा।

[18] सहीह मुस्लिम, किताब अज़-ज़िक्र व अद-दुआ, अध्याय अल-हस्स अला अज़-ज़िक्र (4/17)।

क़यामत के दिन क़ुरआन पाठ करने वाले से कहा जाएगा:

“पढ़ते जाओ और चढ़ते जाओ। साथ ही तुम उसी तरह ठहर-ठहर कर पढ़ो, जैसे दुनिया में ठहर-ठहर कर पढ़ा करते थे, इस लिए आख़िरी आयत जहां तुम पढ़ोगे वहां तुम्हारा ठिकाना होगा” [19]

[19] सुनन अबू दाऊद, हदीस संख्या: 1464, सुनन तिरमिज़ी, हदीस संख्या: 2914, नसई की अस-सुनन अल-कुबरा, हदीस संख्या: 8056 और मुसनद अहमद, हदीस संख्या: 6799

ग्यारहवाँ: शरई ज्ञान प्राप्त करना, उसे लोगों को सिखाना और उसकी ओर लोगों को बुलाना

आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है:

“जो ज्ञान प्राप्ती के पथ पर चलता है, अल्लाह उसके लिए जन्नत का रास्ता आसान कर देता है और फ़रिश्ते उसके कार्य से खुश होकर उस के लिए अपने परों को बिछा देते हैं।”[20]

[20] सुनन तिरमिज़ी, अबवाब अल-इल्म, अध्याय: फ़ज़्ल अल-फ़िक़्ह फ़ी अल-इबादह (4/153), सुनन अबू दाऊद, किताब अल-इल्म, अध्याय: अल-हस्स अला तलब अल-इल्म (4/5857) और इब्न-ए-माजा, अल-मुक़द्दमह (1/81)। अलबानी ने इसे सहीह अल-जामे 5/302 में सहीह कहा है।

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक और हदीस में फ़रमाया है:

“तुम में से सबसे उत्तम व्यक्ति वह है जो खुद क़ुरआन सीखे और उसे दूसरों को सिखाए।”[21]

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक और हदीस में फ़रमाया है:

“फ़रिश्ते उन लोगों के लिए दया की दुआ करते हैं जो लोगों को भलाई की बातें सिखाते हैं।”[22]

अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने एक अन्य हदीस में फ़रमाया है:

“जिसने हिदायत की ओर बुलाया, उसे उतना ही पुण्य मिलेगा, जितना उसपर अमल करने वाले को मिनेगा, (साथ ही इससे) अमल करने वालों के पुण्य में कोई कटौती नहीं होगी।”[23]

[21] सहीह बुख़ारी, किताब अल-फ़ज़ाईल, अध्याय: ख़ैरुकुम मन तअल्लम अल-कुरआन व अल्लमुह (6/236)।

[22] सुनन तिरमिज़ी, किताब अल-इल्म, अध्याय: मा जा-अ फ़ी फ़ज़्ल अल-फ़िक़्ह अला अल-इबादह (5/50)। विस्तृत अंदाज़ में।

[23]सहीह मुस्लिम, किताब अल-इल्म, अध्याय: मन सन्ना सुन्नह हसनह अव सय्यिअह (16/227)।

एक अन्य स्थान में अल्लाह ने कहा है:

“और किसकी बात उससे अच्छी होगी, जो अल्लाह की ओर बुलाये तथा सदाचार करे और कहे कि मैं मुसलमानों में से हूँ।”

[सूरह फ़ुस्सिलत: 33]

बारहवाँ : अल्लाह और उसके रसूल के निर्णय से संतुष्ट होना

अल्लाह के किसी आदेश पर आपत्ति न करना: क्योंकि अल्लाह सबसे बड़ा प्रशासक और सबसे बड़ा दयालु है। धरती एवं आकाश के अंदर कोई वस्तु उससे छुपी हुई नहीं है और उसका आदेश बंदों की इच्छाओं एवं शक्तिशाली लोगों की आकांक्षाओं से प्रभावित नहीं होता। उसकी दया एवं करुणा का एक पक्ष यह है कि उसने अपने बंदों के लिए वह बातें सुनिश्चित की हैं जो उनकी दुनिया एवं आख़िरत के हित में हैं और उनको उन बातों का आदेश नहीं दिया है जो उनके वश में नहीं हैं। उसकी बंदगी की मांग यह है कि हर मामले में उसके दिए हुए विधि-विधिन का अनुसरण किया जाए और उसके प्रति पूर्ण हार्दिक संतुष्टि दिखाई जाए।

अल्लाह तआला ने कहा है:

“आपके पालनहार की क़सम! वे कभी ईमान वाले नहीं हो सकते जब तक कि अपने आपस के विवाद में आपको निर्णायक न बनाएँ, फिर आप जो निर्णय कर दें उससे अपने दिलों में तनिक भी संकीर्णता (तंगी) का अनुभव न करे और पूर्णता स्वीकार कर ले।”

[सूरह अन-निसा: 65]

एक अन्य स्थान में पवित्र अल्लाह ने कहा है:

तो क्या वे जाहिलियत (अंधकार युग) का निर्णय चाहते हैं? और अल्लाह से अच्छा निर्णय किसका हो सकता है, उनके लिए जो विश्वास रखते हैं?

[सूरह अल-माइदा: 50]

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